मंगलवार, 12 नवंबर 2013

भोर अब होने को है, अंजोर अब होने को है

जिस चाँद की चाँदनी के दर्शन को अभिशापित हम
उस पर धरा के साये को, हम अब टटोलने को है

दर्पण की स्याह से बेचैन होकर कहें हम अब
भोर अब होने को है, अंजोर अब होने को है

जिंदगी के कुछ सपने धीरे धीरे जिन्हें ममोड़ते है हम अब
काँच चुन चुके घायल हाथों से , सपने फिर से पिरोने को है

इस ब्रह्म मुहूर्त में सपने भी सच्चे होते जाएँगे
विदाई की बेला में कोई कड़वा सच क्यों मुझे झकझोरने को है