बुधवार, 23 जनवरी 2013

A Dream!

A wait for the dream, I want to live, with Eye wide open, with utmost consciousness. A Golden India, which has equal opportunity for one and all, where every one is treated with respect as human. Please don't mistake my dream as a communist thought and write it off!

रविवार, 20 जनवरी 2013

बस यूँ ही on 1857 Sepoy Mutiny


जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने संघर्ष कर दिया जीवन बलिदान
उन्हें तो वो चंद सिपाहियों की आवारागर्दी लगी थी  
कितनी मुश्किलात में हमने लिखी थी वो पंकितियाँ
उन्हें तो वो बस कागज स्याही की बर्बादी लगी थी

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

गरीबी


 जिंदगी की एक नई पगडण्डी मिली तो वो खुशी मना रहे थे , खेतों के बंटवारे में जाने कितनी ही ज़मीन परती हो चली थी , जहाँ कभी लहलहराते फसल दिखते थे, मेरे परदादा और उनके समकालीनों के हर उन खेत के कई हिस्से हो चुके हैं , पता नहीं कौन सा किसका है , बैलों और हल की जगह ट्रेक्टरों ने ले लिया है और इंसान से इंसानियत छिन सी गयी है

लाल बहादुर के किसान की जय तो बोला जाता है लेकिन उसका सर भी जवानों के सर की तरह काटा जा रहा है , फर्क है कि काटने वाले अपनों के भेष में ही हैं, तो शिकायत किससे करें

पता नहीं कुछ लोगो ने पहले ही कैसे भांप लिया था जो खेती छोड़ शहरो के तरफ पलायन कर चुके थे , एक नया तबका पैदा हो गया था , जिसे शहरी गरीब कहा जाने लगा था , उनकी हालत शायद ग्रामीणों से भी ज्यादा खराब है| सुविधाएँ न होना एक बात है और सामने हो के न मिलना दूसरी बात , पता नहीं अपने इस अभाव , अपने इस बेचारेपन को कैसे समझा पाते होंगे अपने बच्चों को| शायद झूठमूठ के डांटने की कोशिश, जिसमें समझ कम, झल्लाहट ज्यादा हो| काश वो मासूम बच्चे समझ पाते अपने माता पिता की मज़बूरी को|

बात हो रही है मूलभूत सुविधाओ के वितरण की , जब भी हम इन आवश्कताओं के वितरण की समानान्तर प्रणाली खोलते हैं, हम गरीबो के शोषण की एक और नींव रख देते हैं| प्राइवेट स्कूल,  सरकारी स्कूल का बोझ कम करने की बजाये उन्हें बेमाने साबित करने लगते हैं , सरकारी स्कूल भी जिम्मेदारियों से मुक्त हो चलते हैं | बिसलेरी / किन्लें का पानी, नगर पालिका को बेहतर पेयजल न उपलब्ध कराने की ग्लानी से मुक्त कर देता है| कार की उपलब्धता , सरकारी बसों और ट्रेनों के रूट और उनके ऊपर दबाव कम करने लगती है| गिनने बैठे तो यही रह जायें| मूलभूत सुविधाओं का ये हाल तो निजी चैनलों के कारण दूरदर्शन के हालात का यहाँ जायेजा लेना बेमानी होगा| खैर होता ये है कि जो लोग प्राइवेट स्कूल , बिसलेरी और कार नहीं रख पाते वो शोषित होने लगते हैं , उन्हें उनकी गरीबी का अहसास दिलाया जाता है, बार बार | 

किसी ने सिखाया था, बचपन में, भारत में लोकतंत्र है , और हरेक वर्ग का प्रतिधिनित्व होता है | मुझे आज कल ये दुनिया का सबसे हास्यास्पद किस्सा लगता है| आज कल हालात ऐसे हैं, सरकार के लोगों का प्रतिधिनित्व समाज के हर तबके, जाति और जनजातिओं में तो है, लेकिन समाज के हर तबके , जाति और जनजातिओं का प्रतिधिनित्व सरकार में कतई नहीं है , आर्थिक रूप से प्रतिनिधि चुनना तो बहुत दूर की बात है | 

होता यह है कि लोग जिनको अपना प्रतिनिधि चुनते हैं वो असल में उनके साथ जन्मे अगडे होते हैं, जन्म से ना सही, कर्म से मनुवादी , जिन्हें पता है जरुरी सिर्फ वो और उनके वंशज, बाकी सारे गैर जरुरी| अगर ऐसा न होता तो स्वकथित दलित और जनजाति वालों में थोड़ी सी लज्जा जरुर रहती कि अपने वर्ग का जायेजा ले लें | आई आई टी में आरक्षण दिलवा कर समाज का उत्थान करने वालों की सोच कितनी निजी और संकीर्ण है, कहने की जरुरत नहीं है | बात आ कर वहीँ अटकती है, मूलभूत सुविधाएँ और समानान्तर तरीके जिन्हें बनाकर हम अपना आधार ही खोखला कर रहे हैं, लोग हर जगह को पैसे उगाने के उद्गम श्रोत जैसा देखने लगे हैं , जो पढ़ लिख गए, वो अपने समाज का उत्थान करने के बजाये उन्हें बरगला कर नेता बन बैठे हैं | 

अलगाववाद का बीजारोपण किया जा रहा है , देशभक्ति को समाप्त कर एक नई चीज़ सिखाई जा रही है | गरीबी उन्मूलन हो ना हो, हाल ऐसे ही रहे और कुछ किया ना गया तो भारत जरुर टुकडों में बंट जायेगा| पैसा अंदर से आ रहा है या इसे प्रायोजित किया जा रहा है पश्चिम से या फिर हम खुद ही इतने बेवकूफ हों चले हैं पता नहीं |

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

एक सुन्दर समाज


2 तरह के लोग होते हैं एक जो क्रांति की बात करते हैं , दूसरे जो क्रांति करते हैं, इतिहास गवाह है कोई भी क्रांति सिर्फ हथियार से कामयाब नहीं होती , ताकत कलम की सर्वोच्च है| कोई भी मानसिकता पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढती है| जरुरत है कुछेक, जो गैर जरुरी हैं, उन पर रोक लगाया जाये| ठीक उसी तरह जैसे खर पतवार को बढ़ने से रोका जाता है , अगर खर पतवार को बचाने गए समुचा फसल बर्बाद हों जाता है| जैवीय खेती का मतलब फसल बर्बाद करना नहीं, कीटनाशक नहीं इस्तेमाल करना होता है , इस बात को समझना होगा| कीट नाशक नहीं डालना है तो मेहनत करना होगा , खेत में घुसना होगा , एक एक खर पतवार को पहचान के निकालना पड़ेगा|

जरुरी है नयी पीढ़ी को पकड़ के वो मौके दिये जाये ताकि वो समाज का उत्थान करे, खुद का भी | कोई भी बुराई बेमानी पुरानी से नयी पीढ़ी में न जा पाए| आदमी अच्छा है या नहीं, जरुरी नहीं, उसकी कौन सी बात सिखाना है कौन सा नहीं , ये रिश्ते नहीं निर्धारित करने चाहिए|

परिवार समाज की पहली पाठशाला है, अरस्तु की इस बात को दोहराने से ज्यादा जरुरी है इसे समझना , और समाज को सुधारने के लिए नयी पीढ़ी को उस जगह पर पकड़ना पड़ेगा, क्योंकि कुछ मानसिकता से जुडी बुराइयां इंसान माँ के पेट से लाए ना लाए , प्रथम विद्यालय जाने के पहले जरुर सीख लेता है , जो क्षति यहाँ हों जाती है , वो एक और पीढ़ी मायुश कर जाती है|

जब हमें अपनी बुराइयां नहीं देखनी होती और उसे किसी और के ऊपर डालना होता है तो हम समाज जैसे शब्द का सृजन कर लेते हैं, वर्ना अच्छाई तो हमेशा हमारी होती ही हैं समाज की नहीं|

बहुत आवश्यक है कि समाज के उन कम खुशकिस्मत बच्चों को पढाया जाये , और बराबर का मौका दिया जाये जिसके वो ना सिर्फ हकदार है अपितु एक सुन्दर समाज के लिए वो बेहद जरुरी है , उनके लिए, हमारे लिए| खैर हमें सिर्फ ये माहौल उन्हें मुहैया ही नहीं कराना है बल्कि ऐसे मानिसिकता वाले पुरानी पीढ़ी से बचना भी है जो बार बार हर मोड पे हमें रोकेंगे, कहेंगे ये गलत है, मौके ढूंडन्गे, मौके बनायंगे| इंसान की मानसिकता बदलनी मुश्किल है , तो कोशिश ये हो नयी पीढ़ी बदली मानसिकता वाली बने|

बुधवार, 9 जनवरी 2013

मेरी पहली पंक्तियाँ

ये वो पहली  पंक्तियाँ जो मैंने लिखी थी| बात सन 1998 की है| १४ वर्ष से ज्यादा हों गए हैं लेकिन ऐसा लगता है जैसे कल की ही तो बात हो|

"रात भर जागता रहा, सुबह बेचैनी छा गयी,
हाँ  तुम वही हों जो नींद मेरी उड़ा गयी |"

पगडण्डी


पथ पे चलते सब है , मैं पगडण्डी पे चलूँ
जब उसने मुझे अलग बनाया , सबके जैसा क्यों रहूँ
तुम ये सोचते हों मैं पीछे रह गया
मैं सोचता हूँ मैं कुछ आगे हूँ
तुम हँसते मेरी नाकामयाबी पे
मैं रोता तुमारे छोटे सपनो पे  
कल जब पगडण्डी बड़ी सड़क बनेगी ,
पूरा सूबा चलेगा , तो तुम मुझे याद करोगे ,
किताब में लिखोगे पढोगे मेरा नाम
मैं नहीं रहूँगा , बड़े और पुरे हुए मेरे सपनों पे नाज करोगे