शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

बकरीद

आज कल त्यौहार चल रहें हैं मैं लिखता हूँ , लिखते लिखते उदास हो जाता हूँ , लोगो कों भी कर देता हूँ| लोग पूछते हैं क्यों भाई ऐसे नकारत्मक क्यों लिखते हो , प्रतीकत्मक लिखने पर भी लोगो नकारात्मक लगता है| मुझे साहिर की ये पंक्तियाँ याद आ जाती हैं :-

"हम गमजदा हैं लाएं कहां से खुशी गीत
देंगे वही जो पाएंगे इस जिंदगी से हम"

कभी कभी लिखना चाहिए, वो जो अच्छा लगे , मीठा लगे , सच लगे | सच तों सब लिख सकते हैं
, सच लगने वाली बात लिखना चाहिए, तभी भरोसा होता है अपनी काबिलियत पर |

खैर मौसम तो है त्योहारों का , पूजा खत्म हुई है | अधिक मास के कारण बकरीद दुर्गा पूजा के पास आ गया, उस दिन से ३ दिन और २ रातों तक चलेगा | ३ साल ऐसे ही चलेगा|

सच्चाई और अच्छाई की बुराई पर जीत मना चुके | रावण जला चुके | अब पर्व आया है त्याग का , बलिदान का , कुर्बानी का , अपने सबसे अजीज चीज की | लोग बकरा काट खा जाये हैं , कुर्बानी ये नहीं हैं कि बकरा काटना , कुर्बानी यह है कि ७५ पतिशत बकरा दूसरों मे बाटना , जो मांसाहारी हैं वो समझ सकते हैं , कितना मुश्किल काम होता होगा |

खैर बकरे तों पैदा ही होते हैं कटने के लिए , उसकी अम्मा कब तक खैर मनाएगी|

ईद उल जुहा | जाने कितनी बार मेजर जनरल हरिशंकर शर्मा ने मनाई होगी अपनी पत्नी हुश्ना के साथ | भगवान की आज्ञा के लिए अपने सबसे प्यारी चीज कि कुर्बानी , खैर इंसान कों चीज कहना गलत होगा , कानून भी इजाजत नहीं देता बलि की, तो छोड़ दीजिए| वैसे कांग्रेस कों ईद मनानी पड़े तों कसाब की क़ुरबानी दे सकती है , अभी वीरभद्र के दी हैं | कुर्बानी गडकरी की भी देंगे आखिर सत्ता मे जो आना है भाजप को |

खैर अगर कुर्बानी देनी ही है , तो एक ऐसी प्यारी आदत की दीजिए जिसकी जरुरत ना हो , आइये प्रण ले इस ईद आलस्य का परित्याग करे , कुर्बानी दे, हमेशा के लिए|

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

रावण


मैं रावण हूँ , लंकापति रावण ! जगत पिता ब्रह्मा का प्रपौत्र रावण| शिव का आराधक राम की तरह | ज्ञानी भी हूँ, शायद बाकि सब से कहीं ज्यादा , मुझे पता था मेरी मृत्यु कब और कैसे होगी , मैंने मदत भी की भगवान की, मेरी मृत्यु के लिए बने लीला मे, हर वो काम कर के जिनके बिना मेरी मृत्यु न हो पाती| क्या मैंने गलती की , जगत के विध्वंशक और परिवर्तक  भगवान शिव की आराधना करने के जिंदगी भर , या मृत्यु पा कर जगत के पालनहार  भगवान विष्णु के प्रतीक विष्णु # 7 राम से |

इतना ज्ञानी होकर भी मुझे बुराई का प्रतीक माना गया , आज भी मृत्युलोक के एक से बड़े नीच मुझे जला जाते हैं , कम ही समझ पाते है , मैं तो एक प्रतीक हूँ आपके अंदर छुपे बुराइयों का| ये  अहसास दिलाने के लिए की आप कितने भी ज्ञानी हो , कितने भी बलशाली हो , कितने भी बड़े खानदान के हो , अगर अहम आपको स्पर्श करेगा तो मृत्यु निश्चित है, और मारने के लिए किसी भगवान की जरुरत नहीं , एक इंसान काफी है बिना किसी सेना के | अगर जलाना ही है तों अपने अंदर की बुराई को जलाओ , अहम को जलाओ, मन में प्रतीक को जलाओ, एक मन बारूद दिया तो क्या सोचते हो, अच्छाई जयी होगी| खैर इंसान मर जाते हैं , सोच और विचार जीवित रहते हैं , मेरी सोच कितनी मजबूत थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तो लाखो करोडो रावण है , विष्णु # 10 कल्कि को भेजा तो दुनिया खत्म हो जायेगी , शंकराचार्यो कों भेजा था , आज तक लड़ रहे हैं, अब तक मतभेद हैं की विष्णु # 9 कौन है| सारे रावण जी रहे है लाखो करोडो साथ मे, हर सर को धड मिला है, अलग अलग , किसी को दूसरे के अस्तित्व पर कोई आपत्ति नहीं| 

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

त्यौहार

दशहरा, विजयादशमी, नवरात्री: कई नाम है इस पर्व का | कोई कहानी कहता रावन की , कहानी महिषासुर की| रस नौ , माता के नौ रूप| उत्तर में रामलीला और रावन दहन हो रहा है , पश्चिम मे नवरात्री के नृत्य हो रहे है तो पूर्व मे दुर्गा माता के आराधना , दुर्गा माता के साथ माता सरस्वती , माता लक्ष्मी, गणेश, कार्तिकेय की भी |

भारत विविधताओ में एकता का देश है , आखिर जब राम लड़ रहे थे रावण से , तब कोई नृत्य कैसे कर सकता है हर्ष और उल्लास के साथ | विष्णु वर्सन 8 (कृष्ण) डाउनलोड करने के बाद भक्ति मे पुराने आउटडेटेड सॉफ्टवेर विष्णु वर्सन 7 (राम) का क्या जरुरत| जो करना है करने दो| खैर आज कल कुछ लोग अपने आप को पाश्चात्य संस्कृति(बिहार के लिए गुजरात भी पश्चिम ही है ) से ग्रसित हो खुद को डांडिया डांसर समझ रहे हैं|

त्यौहार| इसको मनाने का अधिकार सिर्फ पैसे होने वाले को ही होना चाहिए| नए वस्त्र सबके लिए, चाहिए या न चाहिए , शायद आपकी अलमारी के लिए ही सही | बच्चे थे; खुश हो जाते थे , बाकि जैसे हम भी नया वस्त्र लेंगे , मेले मे जायंगे | पैसे तो माता पिता देंगे ही|

तभी मनमोहन सिंह नहीं हुआ करते थे , तो हमें यही लगता था की पैसे पेड़ पर उगते हैं| तभी बता देते तों इतनी तकलीफ न होती | शायद इन्होने बोला भी होगा , तभी प्रधानमंत्री नहीं थे , एकोनोमिक्स टाइम्स के किसी पन्ने पे छापा भी होगा , किसी ने न पढ़ा न बताया| कुछ लोग की किस्मत ऐसे ही होती है , कुछ भी कर ले , कुछ भी बन जाये , कोई भाव नहीं देता |

पैसे के तकलीफ नही पता, मध्यम वर्ग का बजट खराब हो जाता था , सबके लिए नए कपडे , स्त्रियों को घर का मालिक बनाया ही इसलिए जाता होगा ताकि अगर कटौती करनी है तो अपने नए कपड़े न ले , मालिक त्याग के लिए , बलिदान के लिए , शोषित होने के लिए|

मालूम पड़ जाएँ तो कभी नए कपड़े न लेते, जरुरत ही क्या है| क्या भगवान राम ने नए कपड़े पहने थे, रावण को मारने के लिए , या माता ने पहनी थी नयी साडी, राक्षसों का अंत करने के लिए |

मध्यम वर्ग तो फिर भी ठीक है, ले दे के , कर्जो मे डूब के त्यौहारो के सजा यातना झेल जाता है, बोलता है | शायद कुम्भ मे इतनी इतनी भीड़ इसलिए होती है , क्योंकि उस वर्ष त्यौहार १२ के बजाये १३ महीनों पर आता है , लोग खुश होते हैं दुआए देते हैं , चलो थोडा आराम मिला एक महीने का|

गरीबों की हालत क्या कहने| आता ही है त्यौहार: यह अहसास दिलाने की तुम हो या नहीं , फर्क नहीं पड़ता किसी को भी नहीं| मांग लो, नहीं मिलेगा , परबी के नाम के कुछ कपड़े पुराने मिल गए तों मना लो त्यौहार खुश हो के| बच्चे हो तो भी समझो, फटा पुराना ही सही, मिला तो बदन ढांकने कों , आखिर ये शायद आखिरी वर्ष हो तुमारा , इस ठण्ड टिक पाए तभी तो आखिरी नहीं होगा न|

गरीब का बचपन तो गर्भ मे ही बीत जाता है, जन्म लेते ही प्रौढ़ हो जाते है, और मौत होती है बार बार रोजाना , जिस दिन प्राण निकलते है उस दिन तक |

जो कुछ मिल गया खुश हो जाओ अपनी किस्मत पर| गम न करो जिन्दा रहने दिया गया, खैर मनाओ | लेकिन बचपन ही तों है एक वो भी छीन लें | मर मर के माँ बाप बच्चो के खुशी खरीदतें हैं, अपना खून बेच कर|

खैर सच्चाई ये है कि भगवान के यहाँ सब बराबर है , लेकिन जाने वालो कों दूसरों को आना अच्छा नहीं लगता , एक्सक्लूसिव सर्विस की आदत पड़ गयी है हमें , भगवान से भी चाहिए | इनका बस चले तो रावण के अंदर एक पारदर्शी आग सुरक्षित कमरा बना के रावण दहन देखे , खास नागरिक जो हैं आम देश के|

खैर मुझ जैसे दीवानों के मत सुनिए, पर्व मनाइए , हो सके तो दबे वर्ग की भी मदत कीजिये|

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

काशी जाने की मनोकामना

बचपन में पढ़ते न थे| ऐसा न था कोई मज़बूरी थी, की बाल मजदूरी करते थे| ऐसा भी न था की घर में पढ़ने का माहौल नहीं था| बाबु जी ग्राम प्रधान (मुखिया) थे| उस जमाने में एम ए किया था| कई बच्चे उन से पढ़ कर क्या क्या बन गए थे| कुछेक को तो बाबु जी ने घर पर कर रख पढाया था|

खैर हर कुत्ता काशी जायेगा हडिया कौन ढोएगा| जाने कितनी आत्माए भटकेंगी , मैंने समाज कल्याण में और लोगो कों इस मृत्यु लोक से मुक्ति दिलाने के
लिए हडिया ढोने का जिम्मा उठाया था|

विद्यालय के हिंदी शिक्षक को लगता था कि मुझे दिखा कर बाकी बच्चो को ‘चिराग तले अँधेरा’ का अर्थ समझाने में मेहनत न करनी पड़ेगी| खैर शिक्षक कभी गलत नहीं होते , गलत होती है ये सोच कि महज ८ साल का उम्र काफी है किसी को पुरे जीवन के लिए सफल और असफल करार देने के लिए | खैर इसके लिए भी मैं सपूर्ण शिक्षा प्रणाली को दोषी पता हूँ|

जब बच्चा असफल करार दे दिया जाता है , तो या तो वो पढ़ कर दुबारा पास होने कि कोशिश करता है ताकि एक मीडियोकर जीवन मिल जाये| जो असाधारण होते है वो उठ पड़ते है क्रांति के लिए |

हर क्रांति सफल नहीं होती, अधिकांश जीवन निगल कर ही दम लेती हैं|

अब एक बच्चे की क्रांति क्या होगी , हर कोई भगत तो होता नहीं है , ना हरेक में इतना धैर्य होता है की बिहार की देहातों से निकल कुछ बन पायें | तो हम क्या कर सकते थे राजपूत होने का शौर्य वो भी बाबु साहेब (वीर कुंवर सिंह) के बिहार का कुछ न किये बिना कैसे जायंगे , बिहार के राजपूत की इरादे तो अंग्रेज न डगमगा पायें थे|

खैर मुल्ला की दौड मस्जिद तक, मुंबई चले गए| १०-१५ दिन फांकी मारा, फिर परेशान क्या करें| जो पैसे थे खत्म हो गए , साथ में अकड़ भी|

हजारो साल की राजपूती परंपरा का भी अंत नजर आ रहा था| हो भी क्यों न कुरीतियाँ खत्म होनी ही चाहिए |

आखिर गांव के एक चचा मुंबई में रहते थे| जाके के उनके घर के सामने के चाय के दुकान वाले के यहाँ नौकरी कर ली ताकि वो देखे और घर भिजवा दे| खुद से आते तो आन पे बन जाता| पता नहीं था मुंबई बड़ा व्यस्त शहर है , पति पत्नी महीनों तक नहीं बात कर पाते एक दूसरे से एक छत के नीचे रह भी | खैर १२ साल पे घूरे का भाग्य भी जगता है मेरा २० दिन में ही जग गया| चाचा ने एक दिन मुझे देखा , खुद को स्मार्ट समझा और मुझे वापस भिजवा दिया गया , लोग शाबाशी दे रहे थे , अपने आप को करमचंद समझ रहे थे |

मेरी अकड़ मिट चुकी थी , अक्ल ठिकाने आ गयी थी| सपनों के महासागर एकाएक सुख गया था | जिंदगी के मायने और मूल्य समय के साथ इतने बदल जाते हैं ये पता नहीं था|

मुंबई में एक और सपना टुटा था | हीरो बनने का| बचपन से सिनेमा देखते थे , बाबु जी बड़े आदमी थे , घर में रंगीन टी वी और वी सी आर हुआ करता था , बहुत सिनेमा देखते थे , ऐसा लगता था सब कुछ हीरो ने किया , उसी का, उसी के लिए फिल्म बनाया है , भगवान भी ऐसे ही होते होंगे, हरफनमौला| फाइट, गाना गाना, दौडना , पढाई , खेल कूद , दिखना ऐसे लगते है इतनी बहुमुखी प्रतिभा तों रावन की भी नहीं थी बेचारे के १० ही मुख थे | लेकिन रावन की प्रतिभा से ऊपर थी राम के प्रतिभा , जो वो करते थे वही सही था, बचपन से सुना था , रामानंद सागर ने दिखा भी दिया था | अरुण गोविल साक्षात राम थे , मेरे लिए और १९८७ – ८९ तक टी वी देखने वाले हर उस भारतीय के लिए | फिल्मो में हीरो ही सही होता है , चाहे वो पुलिस हो या चोर , अमीर हो या गरीब , राजा हो या रंक , व्यापारी हो या क्लर्क , सही हीरो ही होता है , बाकी सारे लोग जीते ही उसके लिए, उसके जीवन कों सपोर्ट करने के लिए|

गांव वापस आ चुका था , रामलीला चालु हो गयी थी अब | पूरी कहानी राम के इर्द गिर्द , राम को भगवान बना दिया था| राम को जन्म देने वाले दसरथ और कौशल्या क्या महान न थे| अपनी पत्नी से दूर रह भी भाई भाभी के साथ बनवास जा , राजकुमार हो भी सेवक बने रहे लक्ष्मण हमेशा साइड हीरो ही क्यों रहे| क्या पैदा होने में चंद मिनटों के देरी किस्मत इतना बदल सकती है| अग्नि परीक्षा देकर भी जिंदगी भर दुःख झेलने वाली सीता के गलती तो सिर्फ इतनी ही थी न की वो पुरुष प्रधान समाज में जन्म ले इंसान बनी थी . देवी बन ही आती तो ये दुर्दशा नहीं होती | इतना बड़ा त्याग कर भी उर्मिला कों मिला क्या मेहमान भूमिका, एक फ्रेम भी अकेले का नहीं मिला था उनको| अपनी बहन की बेईज़द्ती के बदला लेने वाला ज्ञानी रावन ने क्या गलत किया था की उसे मेन विलेन का रोल दिया जाये| जिंदगी भर सेवा की , लंका जलाई , सारे मेजर फाईट सीन किये , हनुमान जी फिर भी साइड हीरो वो भी लक्ष्मण के साथ सांझा| २ मिनट देर से पैदा हुए भरत ने तो भाई स्नेह में गद्दी भी न ली , १४ साल तक इंतज़ार किया , फिर भी उनका रोल हमेशा ग्रे शेड में रहा, आज भी है| अगर नाभि में तीर ही मारना था कोई और मार लेता | अगर सीता का अपहरण होने देने वाले राम को इस लिये छोड़ दिया गया क्योंकि वो अंतर्यामी थे , तो क्या कैकियी और मंथरा को इसी बेनिफिट ऑफ डाउट देके नहीं छोड़ा जा सकता , नहीं जनाब उन्हें तो ऐसा बदनाम किया गया कि आज तक किसी का नाम कैकेयी या मंथरा नहीं रखा जाता| भरत जैसे सपूत जन्मने वाली माता की एक गलती ना माफ कर पायें हम, शिशुपाल जैसे दुष्ट की तो १०० भयानक गलतियाँ माफ की थी | यह दोहरा मापदंड क्यों|

आखिर ऐसा क्यों था , केवल इसलिए क्योंकि बाल्मीकि ने कथा में राम को हीरो बना दिया था पहले से ही| शायद यही कारण होगा|

एक दो बार अपनी ये सोच बताई थी मैंने, लोगो ने तब से पागल बोलना चालू कर दिया था , बाबु जी की इज्ज़त कर के मुझे जिन्दा छोड़ दिया गया , आज कल हडिया ढो रहा हूँ, मेरे साथ पढ़ने वाले काशी चले गए, उन्होंने कभी चुभने वाले प्रश्न जो नहीं किये थे | समय से पहले और समाज के ठेकेदारों से विपरीत सोचने की शायद यही सजा है |

My first few days in Gurgaon

I am hearing about transfers since childhood. I used to get excited by transfers. New town, new house, new people, new school, new culture and plenty of time to understand those and compare with the existing ones. Most importantly, appreciating the best of both. I realize with all new things, also comes lot of adjustment, lot of compromises, lot of challenges, as part and parcel of game. Most of the time people don’t want to come out of their own comfort zone.

People are forced into changes, either by their situation: personal or profession or some protocols made by Goras and copied by Kalas.

My number also came, after seeing 26 springs in life I also got opportunity to get transferred. I was transferred from Pune to Gurgaon . The distance was 1400 KM, I understood the nitty-gritty of real challenges of a transfer. All the excitement had died down, and replaced by lot of maturity and responsibility. Excitement of relocation allowance, coming to new place, meeting new people were subdued long back. All that was on in mind was to find a place to survive in this unknown hostile city. I am a Bihari raised in Mumbai, But still I had unknown fear of this city called Gurgaon.

Gurgaon on 16th August 2010. Nation had celebrated Independence day a day before. I felt I lost it. If you are from this part of world, you know its the worst time to land. In rainy season Gurgaon is next only to Venice. Every road looked like a canal, but neither can you drive/walk nor can you run vessels.But anticipation of unknown doesn’t mean its bad. It may be the reason behind people taking less innovative path.

I managed to put myself in a Bread and Breakfast on Sohna road called Cinnamon Stays. I was not aware what I am up to…. I am going to be treated with one of the most different and amazing experience of my life till now. I expected a typical boring hotel/Guest house but welcomed by typical home away from home (not house, people specially studies in Northern India can understand the meaning with exact feeling). There were no Lobby, not parallel and facing each other kind of rooms, like the one made by mechanical drafter on drawing board. Anyways I was surprise pleasantly and become fearful of unknown at the same time. Well somehow the first feeling was going to stay for ages and later was just momentary.

The caretaker asked me to come to first floor, I entered a room which was different. It missed the blankness of a typical KFC original recipe which you find in a typical 5 star room, I am glad it did. It was as spicy as typical Indian Food. It has many artwork, photos or vintage paintings which let you recollect your own past and make you revisit your memory lane. also found a DVD player and DVD of Kanti Shah / Mithun da’s Movies Gunda, Loha, Suraj. The epic collection of cult cinema will make you remember those days. The each and everything was in sync with the entire theme. And it was not coincident; it was result of detailing of work and hard-work done by some real artists or at least someone who was born as artist. By the time I understood, that coming 7-10 days are the one of those few which we remember all through life. The entire atmosphere of the room was fabulous. It was designed especially for bachelor who want to remember his college/golden days. The entire room was in one connected theme. Not a single thing was out of place, whether its small-small articles or queen size bed.

The entire room was enough to let you forget entire tiredness of day and indulge you in a very different creative world.

The evening came and I was told I will be joined by the owners of place. My mind started again, Why, Owners are not supposed to meet the guest, are they? Especially someone who is from middle management job of corporate, in short I am not influential enough to get them any business, not yet. I am just staying for few days. Are they some lucky chap, who got money by virtue of location of native place of theirs. Don’t they have anything else to do and want to have meal with me. Why? There were thousand more such questions in mind. Mind had limitations due to experience I had till now and typical stereotypes.

I was wrong, grossly wrong.

Anyways I met the owners, The entire atmosphere was flowing the positivity. The secret of creativity in the room was out. They started sharing the story of the place. How they have crafted the entire place. My Saraswati Quotient was going up. They both were very different and miles away from a typical guest house owner or even a typical KFC original recipe type boring hotel managers. I was told there are 5 rooms and all 5 are based on 5 different themes. The one I was staying was called “Purani Jeans”. Now I was able to connect better.

I was shown the 4 others too, each and every thing were handpicked by them and following a certain theme. Unlike many other place of similar nature, there was no need to write the name of rooms on their doors, Once you are in you will come to know automatically, as if each room is a master pieces of Satyajit Ray: entirely different from each other still all brilliant ones.

Finally I found a permanent place to live and I left the place after building 9 days of life long memory. The day I was leaving I had to go to my new place , Owner told me I will drop you, Before I could think something, my 9 days of experience convinced me its just as they are, they are different. I am not saying you will get personalize drop service everytime, I am just saying I met some real nice people whom I won’t forget for life. By the time only in 9 days I was ready to fight for a living in totally different city. The most difficult days were full of joy.

Not that there are no flip side, this place is 5 km from main area of Gurgaon but for the experience you get, I am certain those things will become secondary in front of other facilities and experience you get. If you are coming to Gurgaon for few days and you want to experience something new and very special, I recommend you must visit Cinnamon Stay and try the hospitality: You will love it!

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

हुश्ना



जो जैसा दिखता है वैसा होता नही है| बहुत पहले पढ़ा था कही , बार बार याद दिलाया जाता रहा है ,फिर भी दिल है कि मानता ही नही

अच्छे और बुरे लोग मन से होते हैं ,लेकिन हमें उन्हें देखने के लिए समझ चाहिए| जो आती है तजुर्बे से; खुद के और पीढियों के| लेकिन २ मिनट के नूडल और टी२० के इस दौर में किसी के पास इतना वक्त कहाँ होता है| दादा दादी नाना नानी बस रिश्तेदार बन रह गए हैं और विद्यालय बन गया है १०० मीटर दौड, जहाँ सब दौड रहे हैं छोटी छोटी उपलब्धियों के लिए जिनका दीर्घ काल में कोई महत्व भी नही रहने वाला | ऐसे में किसे दिखे मन की खबसूरती, न पीढ़ी को समझी न वो आगे सीखा पायें | खबसूरती का मापदंड ही बदल दिया , भाषा ने भी साथ दिया सीरत और सूरत में थोडा ही फर्क था , लग गए सब सूरत ताड़ने में | जो रही सही कसर थी वो गोरा बनाने वाली क्रीम और फेस वाश , और ऐसी ही नाना प्रकार के चीजों ने कर दिया| जिसे जो मिलता है बेच डालो , आखिर जनता वही है , जो इंसान की सूरत देखती है , तो सूरत ठीक करने वाली क्रीमो का भी बाहरी पैकेजिंग ही देखेगी| चल गयी दूकान ...

प्रेम को देशज में नेह कहा जाता है , बहुत लोगो ने बोला यह अपभ्रंश है , स्नेह से बना है | लेकिन मेरी राय में स्नेह से इस उस का मतलब हटाने पर ही नेह होता है, मतलब | पहले बड़ा आसान था , माँ बाप , भाई बहन , दोस्तों से होता था , बीवी से होता था , २ -३ साल रखने के बाद , घर के गाय बैल घोड़े कुत्ते तोते से भी हो जाता प्यार , उनके रंग रूप पे निर्भर न करता था न | किसान परिवार से हूं , हल से भी होता था , खेतों से भी चाहे वो बाढ़ में डूबे ही क्यों न हो | लेकिन फिर जमाना बाहरी सौंदर्य का आ गया , भीतर से समझने के लिए वक्त नही है , आजकल चावल भी पोलिश कर के बेचे खाए जाते हैं , सब्जियों और फलो पर केमिकल डाले जाते है ताकि बाहर से अच्छे दिखे |

अब प्यार भी ऐसे ही होता है , फोटो से भी होता है , आकृतियों से भी होता है , जीवित इंसान को देख उसकी एक छवि मन में बना ली तो उस छवि से प्यार हो जाता है | उस जीवित इंसान को कभी पता भी न चले तुमारी इस छवि के बारे में, जिंदगी भर | खैर कवि छवि से ही प्यार कर पाते हैं , जीवित उनके नसीब नही होते | दूसरी बात ये है कि जिन्हें जीवित मिल गए वो कभी कवि न बन पाए |

एक वो जमाना था , जब हुश्ना कों पहली बार देखा, उसके अगले दिन ईद थी , दिवाली भी बीते हुए १ दिन ही हुआ था, मुझे तों लगा था दोनों आज ही है , नही भी होती तों इससे ज्यादा रौशनी तो कभी न थी मेरे लिए | सन ६९ , थोड़े दिन पहले गाँधी जी के जन्म शताब्दी मनाया, बहुत देशभक्ति गीत गाए थे , लेकिन आज कुछ और ही चल रहा था मन में , हुश्ना मुझे आराधना के शर्मीला टैगोर और दो रास्ते के मुमताज़ नजर आ रही थी, शायद उनसे भी खूबसूरत | हिम्मत न थी की जा के बात कर पाऊं उससे , कह पाऊं मेरे दिल में जो उफान उठा था | अगले कुछ दिन तक सोते जागते , चलते फिरते हुश्ना की उस छवि से बात करते रहता था , वो अपनी थी , न किसी लोक लिहाज का डर , समय के पाबन्दी , न कोई लड़कियों के नखरे , एक सच्ची दोस्त के तरह हमेशा मुस्कुराते हुए मेरे साथ रहती वो छवि , मेरी जिंदगी का अहम हिस्सा | कभी कभी असली हुश्ना के दर्शन हो जाते, तभी भी मेरे साथ खड़ी हो कहती , बात को करो अगर नही किया तों ऐसे ही रह जाओगे , मेरी शादी हो जायेगी फिर तो इस छवि से भी खुले मन बात न कर पाओगे | लेकिन कभी हिम्मत न हुई | हुश्ना तो शायद मुझे जानती भी न थी , न मैं उसके बारे में कुछ जान पाया था , तो उसकी छवि भी जो मेरे साथ थी कुछ ऐसी ही बन पाई जो मुझे पसंद थी , लेकिन वो छवि भी अनजान थी हुश्ना से , सिर्फ शक्ल सूरत ही एक थे वो भी उतने जितनी मेरी आँखे देख समझ पाई थी बाकी का चित्रण कल्पना से हुआ था | ७० दिन बीत चुके थे , सन ७० की फ़रवरी आ चुकी थी|

सुना हुश्ना के पिता का तबादला हो गया था , छवि बैठ बैठे मुझे कोस रही थी , मैं नक्कारा हूं ये कह रही थी , ध्यान आया ये छवि कुछ वैसा ही कह रही थी जो मैं खुद सोचता हूं कही अंदर से | ये छवि शायद मेरे मन का ही प्रतिबिम्ब थी हुश्ना की शक्ल ही थी |

खैर हिम्मत जुटी , भोलेबाबा को याद किया , और चल दिया फैसला करने | चारो और बकरे कट रहे थे , आज बकरीद थी | अगर हुश्ना के घर वालो ने देख लिया तो बेटा एक बकरा बच जायेगा, हलाल मैं ही होऊंगा , अगर बाबू (पिता) को मालूम पड़ जाता तो पता नही क्या होता | आखिर हिम्मत जुटा उस घर में पहूँच गया , हुश्ना खड़ी थी , मैं ले दे के अपनी बात एक सांस में कह दी , उसकी चेहरा देख के अंदाजा हुआ मैंने क्या कह दिया , पीछे से उसके अब्बा जान आ गए , मैं खुद को देख लिया था बकरों के लाइन में |

बेटा हरीशंकर तू तो गया बेटा, ह से हरिशंकर को, ह से हुश्ना मिले न मिले , ह से हलाल जरुर होगा आज |

अब्बा जान को देखते ही हुश्ना के आँखों में मेरे प्रति गुस्सा छु हो गया , और आ गयी एक अजीब सा डर और मेरे प्रति सहानुभूति | आखिर बकरीद में काटने वाला बकरा सबसे प्यारा होना ही चाहिए | कुछ ऐसा ही सही लेकिन एक प्रेम का बीज उधर भी पनप चुका था |

अरे तुम डॉक्टर रवि शंकर शर्मा के बेटे हो न , यहाँ क्या कर रहे बेटा आओ मेरे साथ आओ तुमको गोश्त बिरयानी खिलते है , तुमारे पिता जी और मै साथ में पढ़ा करते थे और बहुत अच्छे दोस्त भी है , मैं तुमरे घर भी आता था , फिर मेरा तबादला लखनउ हो गया , अभी २ महीने पहले ही वापस आयें है, याद नही आया तुमको , शायद तुम बहुत छोटे थे , तुम और हुश्ना एक साथ खेला करते थे”, खैर कसाई के चेहरे में से एक चाचा दिखने लगे थे , माँ का खर जिउतिया करना अब सार्थक लग रहा था | याद आया तबादला वाली खबर भी गलत ही थी या फिर पुरानी थी , चलो इस गलत खबर ने हिम्मत तो दी | बेटी हुश्ना जरा अम्मी कों बताओ के शर्मा चाचा का बेटा आया है , हुश्ना प्रेम के भरी अभिव्यक्ति सुनने के बाद मुस्कुराते हुए अंदर जा रही थी , उनकी मुस्कुराते चेहरे की एक झलक, उनकी छवि के साथ के ७० दिन से ज्यादा खूबसूरत थी |

खैर उस दिन गोश्त खाया नही जा रहा था , ऐसा नही की मैं शर्मा जी पूरा शाकाहारी था , लेकिन उस गोश्त में अपनापन लग रहा था , ऐसा जैसे इस बकरे ने जान मुझे बचाने के लिए ही दी हो |

परिवार काफी करीबी थे , सब साथ में बैठ खाना खा रहे थे , चचा जी खुले विचारों के थे , चचा जान दोस्त के बेटे के आने से अपने बचपन के दिन में चले गए थे , चची भी चचा की खुशी में खुश थी , हुश्ना को मेरे प्रेम का अनुभव होने लगा था , सब आत्म विभोर थे , मैं भी |

खैर छवि के जगह जीवित हुश्ना ने लिया था , मैं किसी न किसी बहाने से उनके घर जाने लगा , कभी कभी माँ भी हुश्ना और उसकी अम्मी कों बुला लेती | बहुत समय मिलता था , धीरे धीरे उसने भी एक दिन प्रेम स्वीकृति दे ही दी| मैंने अपने सपनों में कई बार ७ फेरे ले मंगल सूत्र बाँध चुका था , और वो भी अपने सपने में जाने कई बार कबुल है कबुल है कर चुकी थी , स्पेशल मैरेज एक्ट के बारे में पता था , हम दोनों ने एक दिन चुपके से अदालत में शादी कर दी , एक एक चिठ्ठी अपने अपने घर लिख गए|

लेकिन जैसा हमने सोचा था, हुआ उसका ठीक उल्टा, घर वाले समझा बुझा ले आयें , नाराज थे, इसलिए नही के हमने शादी अपनी मर्जी से की , इसलिए क्यों कि अपने माँ बाप को हमने पराया कर दिया था शादी के वक्त|

बात सन ७० जून के थी , समाज हमारे माता पिता जैसा उदार नही था , इसलिए दोनों परिवारों अलग शहर आ बसे थे | मैं भारतीय सेना में सेंकंड लेफ्टिनेंट बहाल हो गया था , हुश्ना बेहद खुश थी , माता पिता , अम्मी अब्बा भी |

आज सन २०१२ में , मैं सेवानिर्वित हुआ हूं भारतीय सेना से मेजर जनरल हरी शंकर शर्मा| आज भी हुश्ना उतनी ही अच्छी लगती है जितनी ६९ की ईद के एक रोज पहले लगी थी| सच्चा प्यार समय से परे होता है| True love is timeless.