गुरुवार, 27 सितंबर 2012

मस्जिद घर से दूर थी

मस्जिद घर से दूर थी और खुदा था पास,
और वो समझे काफिरो के जमात से हम आये थे|
आशाओ का दीप ना जला पाया क्योंकि वहां हवा थी तेज,
उनको लगा हमें अँधेरे की आदत सी पड़ गयी थी|
बहुत आशाओ से उन्होंने हमें देखा,
पर वो समझ ही न पाये कि उनकी निराशा अब हमारी थी|
रात भर उनको सोच, हमें नींद ही नही आई,
उन्होंने तो हमें दिनभर सिर्फ उंघते ही देखा था|

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

एक कहानी ये भी

बचपन से मैं बड़ा आवारा किस्म का शरीफ हुआ करता था | आपको ताजुब हो रहा होगा इस विरोधाभाष के कारण, लीजिए अभी दूर कर देते हैं ,... विद्यालय अनुशाषण के लिए मशहूर था, अनुशाषण में रहना शायद मेरी मज़बूरी ही थी क्योंकि अनुशाषण बहाल करने वाले थे प्राचार्य थे मेरे पडोसी , जाने क्या सोच बाबु जी ने प्लाट ख़रीदा था, जाहिर है कभी अनुशा
षण तोड़ने का स्वप्न देखना भी पाप था, बस एक यही विद्याथियों वाले लक्षण थे मुझमे, दूसरा कारण था अपने उम्र से आगे के क्लास में नामांकन, अगर कुछ करना भी चाहो तो अपने से बलशाली सहपाठियो के शरीर कों देख शरीफ बनाने के अलावा और कोई विकल्प था भी नही, मज़बूरी का नाम मनमोहन | कभी कभी सोचता हूं अगर Malcolm Gladwell ने Outliers तब तक लिख दी होती और अगर काश मेरे घर में किसी ने Outliers पढ़ ली होती तो जन्म दिवस और जन्म वर्ष देख के मेरा नामांकन कराया होता , नामांकन वर्ष देख के जन्म वर्ष नही लिखा जाता|

बाकि पढाई लिखाई और मैं एक दूसरे कों बहुत इजात करते थे और एक दूसरे से मीलो दूर रहते थे , शिक्षकों में हारा बाजी लगती थी अगर ये मैट्रिक (१०) पास हो गया तो बिहार की शिक्षा प्रणाली का भगवान ही मालिक है, जो उस समय तक कुछ हद तक सच भी था , भगवान के पास एक अतिरिक्त प्रभार बिहार के शिक्षा मंत्रालय का भी था |

खैर शिक्षकों के दावों कि थोड़ी सचाई मेरी लतिरी(लेफ्ट) हाथ से लिखे जाने ब्रह्मा लिपि में छुपी हुई थी , जिसे पड़ने कि काबिलियत तब तक मैंने भी नही पाई थी, जो थोड़े उदार किस्म के थे वो बोल देते डॉक्टर बन सकता है , बहुत बाद में समझ आया की इस भविष्यवाणी का सम्बन्ध मेरे प्रतिभा और मेधा से ज्यादा मेरी लेखनी से है |

खैर सचिन तेंदुलकर से पीटे हुए गेंदबाज़ के तरह मैं भी अपनी लेखनी को विधि का विधान ही समझता रहा और शायद आज भी समझता हूं, फर्क सिर्फ इतना है की मैंने विषय सिर्फ वैसे चुने जिसमे वाक्य कम लिखने पड़े तो विज्ञान ले लिया | बचपन से अगर थोडा बहुत किसी चीज़ का शौक रहा तो वो शतरंज और गणित का था , वैसे तो दोनों मेरी समझ से बाहर के ही थे लेकिन मैं भी अपनी परिकल्पना के सीमाए बढाते रहता था , और कुछ था भी नही करने कों|

तो जब गणित से हिसाब करना सीख गया तो ६४ का आंकड़े ने बड़ा प्रभावित किया , ये था भी वर्ग ८x८ का शतरंज के ३२ मोहरों के लिए ६४ घर. पहली बार प्रबंधन सिखने का मौका मिला (आज तक उसकी का खा रहा हूं) , समझ में आया के हर मोहरे के लिए २ घर थे , खैर जब ये खेल बनाया गया था, तब घर कि समस्या इतनी विकट नही रही होगी इसलिए
६४ घर में सिर्फ ३२ मोहरों का खेल बना दिया|

लेकिन राजनीती और कूटनीति तो चाणक्य के समय से चली आ रही है, तो खेल बनने वाले ने हर तरह कि तिकडमबाजी करने वाले लोगो के सोच का समावेश मोहरों के चाल से किया और उसकी प्रवृति का विश्लेषण मोहरों के नाम में .... बड़ा सीखा शतरंज से जीवन कों सिर्फ शह मात देना छोड़ के , खैर इतना सोचने के चक्कर में कितने किताबे के पन्ने भी नही उलटे, वो तो भला हो बड़े भाइयों का जिनके पुरानी किताबे मुझे मिलते थी और मेरी किताब ना छूने की गलती छुप जाती थी जैसे रेलवे की चादर वापस देते समय देख कर मालूम नही पड़ता की आपने इस्तेमाल किया है या नही|

खैर ये समझ में तो आ चूका था की ना आज कल शिक्षा प्रणाली में लकीर के फ़कीर ना बन के ना पड़ने वालो के पास बहुत समय होता है सीखने का| जीवन में सबसे पहले वर्ग का तर्क ही समझ में आया था , १,४,९,१६,२५,३६,४९,६४,८१,१०० अब मेरे लिए आम हो चुके थे| हम १२x१२=१४४ तक पहुच चूका था , मुझे लगा शायद कोई खेल ये भी होगा और कुछ यहाँ भी सीखे| तब तक यथार्थ के समान्तर कहानी में बथानी टोला और बाथे की होली भी खेल चुकी थी, और धारा १४४ का एक नया आयाम समझने की बुद्धि भी धीरे धीरे आने लगी थी| खैर धारा की भौतिकी तो कभी समझ में ना आई , सिर्फ इतना समझ में आया की धारा वाले जिन्दा तार कों ना छू के ही जिन्दा रहा जा सकता है

मैं भारत के उस हिस्से में जन्मा था जहां लोगो ने १९८० के बाद से जाति को उपनाम से तो हटा दिया था, लेकिन अपने जहन में प्राथमिक स्थान दे दिया था | कइयो से मिला जिनके लिए मानवता जातिवादिता से क्षीण था , खैर ऐसे पड़े लिखे लोगो से मिलने के बाद तभी कि शिक्षा प्रणाली का असर मुझे खुद से भी ज्यादा बड़ा असफल प्रतीत होने लगा था|

तभी मुझे किसी ने भौतिक शास्त्र में Einstein बाबा की Theory of relativity के बारे में बताया | भौतिकी समझ से परे था वर्ग से इसका कुछ लेना देना नही था, अपनी लेखनी के तुलना किसी और से करके खुद कों और छोटा बनाना मैंने उचित नही समझा , ले दे के एक गणित बचा था , बस अंको कि तुलना करने बैठ गया , तो समझ में आया की लोकतंत्र में जनता का पसंदीदा उमीदवार वही होता है , जिसे जानते सबसे कम नापसंद करती है, कहीं समान्तर कहानी में लालू का प्रकोप से सब परेशान थे ही , relativity से मिलता जुलता शब्द Equity होता है जिसका अर्थ था समता | विद्यालय में सीखा था दुनिया में सबसे बड़ा पराक्रम अभियंता बनाना है और IIT का हो तो करेला नीम पे चड़ा (शायद सोने पे सुहागा में वो मजा नही है) , खैर मालूम पड़ा सुशाषण बाबु अभियंता है और समता पार्टी बनी है लालू के विकल्प के रूप में, फिर क्या था हम भी बन गए समर्थक सुशाषण बाबु के | Theory of relativity के ने मेरे ज्ञान चक्षु खोल दीये थे पुरे राज्य के खुलने में अभी भी कुछ वर्ष शेष थे |

तब तक तक़दीर मुझे कही और ले गयी , उसकी चर्चा कभी और करंगे |

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

Kya chahiye hame

हम हैं नए भारतीय, बाते करते है पुरानी
ना खोज कुछ नया तो सुनाये आर्यभट की कहानी
बाते करते सृजनता की, एक प्रश्न अगर अटपटा आये तो
देते है धरनाये कॉलेज में, जैसे सिलेबस ही थी हमारी जिंदगानी

जब जवान बनना था तो देश याद ना था,
अब बात बात पर अनशन की डूबे हमारी जवानी और जिंदगानी
भ्रष्टाचार मुक्त समाज चाहिए हमें जैसे बच्चे ढूंढे चाँद की  चांदनी
अगर मिल जाये तो क्या हम पचा पायंगे, कितना भी पीके पानी

शायद उत्तर सब जानते हैं लेकिन अब मूसलो से क्या डर,
जानते है दो चोरों में जो पीछे हटा है पहले वही चोर कहलायगा

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

९/११

कुछ ऐसा हुआ ११ साल पहले कि दुनिया दहल गयी 
हमने भी सुना देखा और समझने की भरपूर कोशिश की 

वह नजारा वीभत्स था जाने कितने जान निगल गया 
सपनो टूटे तो टूटे सैकड़ो परिवारो कि उम्मीद भी ढल गयी 

क्यों हुआ अगर ये सोचे तो बेकार है 
मानव की मनोविज्ञान में इसका अर्थ ढूंडने का ना कोई सरोकार है 

दुविधा में कोई तो पड़ा होगा 
हर्ष हजारो के खून से किसी कों तो प्राप्त हुआ होगा

एक बात तो अच्छा था इस जालिमो का
ना देखा इन्होने जात पात और एथिनिटी मरने वालो का

सबको मारा एक सामान जैसे सब बराबर इंसान
सोचो क्या वो समानता के अधिकार के प्रचारक नही

जाने क्यों ये सफल थे और विफलता हमें मिली
जाने क्यों समझ ना पाए हम और परेशान आम कों किया सालो तक

शायद ये यही चाहते थे जो इन्होने ने पा लिया
शायद हम भी यही चाहते थे जो हमने खो दिया