गुरुवार, 30 अगस्त 2012

जेठ की दुपहरी में बादल जमीन पर भी आते हैं

जेठ की दुपहरी में बादल जमीन पर भी आते हैं
पुष के रातो में अंगारे भी दहक जाते हैं
उन बादलों की दहक का क्या करे, भिगो के जो हमें जला जाते हैं
सोचा था बिन दुःख और इच्छाओं का एक जहाँ बना जायंगे
उस इच्छा कि आस में मानव जीवन व्यर्थ कर जाते हैं
जेठ की दुपहरी में बादल जमीन पर भी आते हैं
जिंदगी कुछ यूँ रही कि मौत बेहतर हो सके
उस मौत के इस इंतज़ार में जीना ही भूल बैठे

बुधवार, 15 अगस्त 2012

१५ अगस्त


क्या हमको है पसंद ये आजादी हमारी
आज़ाद ना था हिंद उन दिनों, लड़ मरते थे वीर जिन दिनों
जिन्दगानिया ही गुलाम थी, गोरे कम से कम अलग दिखते थे
अलग थी उनकी सूरत सीरत और फितरत
और हमें पता था हमें लड़ना है किससे है
मगर आज ये आलम है हमें पता नहीं जाना किस तरफ
आजादी है भावनावो की , इच्छाओ की, दिशाओ की
पर हमारे विचार हीन हो गए, संकीर्ण हो गयी मानसिकता
पडोसी मर जाये तो खबर नहीं है पर बर्मा की हिंसा हमारे लिए संगीन हो गयी
क्या यही हमारी संस्कृति, सभ्यता , भाईचारा और सहिष्णुता है
इस धर्मनिरपेक्षता पर है कैसा गर्व, ये स्वंत्रतता का है कैसा पर्व
जिस झंडे कों लहराने के लिए जाने कितने वीर कुर्बान हुए
एक नेता की मौत पे हमने खुद झंडा आधा झुका दिया है
इस नपुंशकता पर है कैसा गर्व, ये स्वंत्रतता का है कैसा पर्व
गाँधी भगत के बैठे साथ में और बोल रहे हैं, मार्ग थे हमारे अलग अलग
पर लक्ष्य हमारा एक था, तुमको ना बचने की कैसी सजा पाया
हर नपुंशक भ्रष्ट और उठाई गिरे ने मेरा नाम अपनाया
बोलो भगत इस मौके पे हो कैसा कैसा गर्व, ये स्वंत्रतता का है कैसा पर्व
भगत बोले, देशवासियो, क्या तुमको है पसंद ये आजादी हमारी
मुफ्त में मिली जिनकों आजादी, बेच खाने चले हैं, काली चमड़ी में गोरे जमे है
इन्हें हटा करो तुम करो गर्व, हर्ष से मनाओ स्वंत्रतता का ये पर्व

शनिवार, 11 अगस्त 2012

ये सड़क कितनी विचित्र है


अपने स्वभाव से कितनी विपरीत है
चले इसपे दुश्मन और मित्र है
ये सड़क कितनी विचित्र है
जीवन बचाए किसी का , मौत लाए किसी का  
बनाने में लगे सिर्फ ईंट पत्थर, खाएं इसने हाड मांस किन्ही का 
देखिये इसपे पूरी जिंदगी सचित्र है
ये सड़क कितनी विचित्र है
कभी कभी लगे भरी कभी लगे कितनी रिक्त है
ये सड़क कितनी विचित्र है
कभी किसी से मिलन की अनुभूति कराये
कभी किसी का विरह अभिव्यक्त कर जाये
पहिया घुमें इसपे कभी, पड़े कभी नालो की ठोकरे
चलती आई सदियों से यही रीत है
ये सड़क कितनी विचित्र है
कभी बनी सिर्फ कागजो में कभी कभी लगा भी कोलतार है
निर्माण प्रक्रिया में विरोधाभाष कितना, कैसा ये व्यक्तित्व है
ये सड़क कितनी विचित्र है
कभी ये मुड़े दायें कभी ये जाये बायें
जाने कैसा इसका चरित्र है
ये सड़क कितनी विचित्र है 

रविवार, 5 अगस्त 2012

Happy Friendship day

दोस्त, सखा, मित्र या साथी
जो इनके हमसाये हैं
एक दिवस उनके नाम पे अंग्रेजो ने बनाये हैं
कितनी विचित्र बात है जो छिडकते थे जान इनपे
अब सिर्फ बैण्ड बंधाते हैं
वर्ष में सिर्फ एक दिन आते हैं
और साल भर नदारद रह जाते हैं
फ्रेंडशिप के भी प्रकार कितने बना दिये हैं
कहने को close है करते नहीं कुछ disclose हैं
जस्ट फ्रेंड भी है कुछ , उनका तो हाल न पूछो
फेसबुक ओरकुट ने दोस्ती कि लंका लगाई है
मित्र के लगाव से ज्यादा कीमत, संख्या में समाई है
इनके इतने दोस्त बने है फिर भी कितने अकेले हैं
देखो मन में आज अकेले रह के ये भी फ्रैंड शिप डे मानते हैं
लेकिन दोस्तों धन्यवाद करूँगा आपका मेरी जिंदगी कुछ निराली है
मिली दोस्ती आपकी, नहीं होती चरितार्थ हमपे ये कहानी हैं

वीर जिसकी थी अलग जिंदगानी


आज कहानी एक सुनानी,
वीर जिसकी थी अलग जिंदगानी,
जब देश के युवाओं का पुरुषार्थ
दम तोड़ रहा था,
८० बसंत देख चुके बाबु कुंवर का कर्तव्य,
उन्हें झकझोर रहा था,
उनकी कहानी उन्ही की जुबानी,
वीर जिसकी थी अलग जिंदगानी|

 

राजा क्या सुख पाने बने हो
जनता को मरवाने बने हो,
ऐ देशवासियो क्या हम इतने नरम है,
हजारों साल की संस्कृति में क्या इतना ही दम है|
मुट्ठी भर गोरे हमें लूट जा रहे है,
और राजाओ के आत्मस्वाभिमान डूबते जा रहे हैं|
क्या ये प्रजा हमारी नहीं?
क्या महल के बाहर हमारी जिम्मेदारी नहीं|
अंग्रेजो को टुकड़े खा रहे हो ,
आर्यवर्त का नाम डूबा रहे हो,
कुत्ते कहें जाते है ऐसे लोग, राजा नहीं कहलाते है,
स्वाधीनता छोड़ने वाले, महल में रह भी दास हो जाते हैं|


जगदीशपुर वो कमजोर रियाशत नहीं है,
न कमजोर उनका राजा है,
बूढी है हड्डिया मेरी,
लेकिन इन्हें हरा सके,गोरे वो में ताकत नहीं है|
८० साल की उम्र तक
शायद मुझे इसलिए जीना था|
आज इन हरामियो के गलत इरादे और उनके खून के साथ गिराना,
अपना पसीना था|
अगर नहीं साथ मेरे लोग तो क्या हुआ,
इन चमगादडो की फ़ौज के लिए,
एक शेर है आरा का खड़ा|
जगदीशपुर से आरा तक की सुरंग में,
इनकी लाशे क्र्मश: बिछाऊंगा |
चाहे शहीद हो जाऊं लेकिन स्वतंत्र जिया हूँ,
स्वतंत्र ही इस धरा से जाऊंगा|

जानता हूं ये क़ुरबानी,
मेरी व्यर्थ जानी हैं|
गुमनामी में जायेगी मेरी पीड़ी,
यही हमारी कहानी है|
तलवे चाट अंग्रेजो के लोग राजा रह जायंगे,
और ९० साल बाद आजादी पे उनके पूत बिजनेस मैन बन जायंगे|


वही बनगे सांसद विधायक, अंग्रेजो का काम वही बढ़ाएँगे|
खून पीयंगे वो जनता का और शोषण करते जायंगे|
आज मुझे मरवाने पे है जो लगे,
उनके बच्चे मेरी मूर्ति लगाएगें|
हर साल में दो बार माला भी चढ़ाएँगे|

मैं आज खड़ा हूं तब भी खड़ा ही रहूँगा|
खूब गिरंगे ओले पत्थर पर शीश न झुकाउंगा |
नयी पीड़ी से आँख मैं मिलाऊंगा|
जब आँख न झुकाई अब मैंने, न कभी झुकाउंगा|

एक फक्र हमेशा रहेगा,
माँ का वादा पूरा कर जाऊंगा|
चाहे हो जाये कुछ भी मुझे,
भारत माँ का सच्चा सपूत कहलाऊंगा|

(copy or use of this poem in part or complete is not permitted without permission of author, any non compliance is subjected to copyright law)

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

मैंने जलाई मशाल तो सिगरेट जलाने सब आ गए गए


जो छोड़ दिया तो कहते हैं जो मांगना है मांग लो,
जो मांग लिया तो कहा देखा कितना है ये मतलबी |
मैंने कही बात अपनी तो  तालिया बजा उठे,
जो खाने बैठे मैं उनके घर, तो कहा फ़ोकट में खाने आया गया कवि |
देश कि दुर्दशा दिखाई  तो साथ हो चल पड़े सब,
गिरेबाँ में झाँका उनके तो कहें, मारो इसको नहीं है ये सही|
मैंने जलाई मशाल तो सिगरेट जलाने सब आ गए गए,
जब बारिश हुई तो छटक गए सब कह, जाना हमें सपरिवार है कुल्लू मनाली  |
भगत सबको चाहिए, मगर घर पडोसी का हो ,
अपने बेटे बारी आई तो तो बोला छोड़ ये सब, करनी है तुझे नौकरी|
सतेन्द्र के लाश पे दिए हमने दीये जला दिए ,
जिस राह पे वो चला था उसमे नहीं आई अभी तक रौशनी|
जिंदगी चलती रहेगी यूँ गर सोचो ये ,
क्या इसी का नाम है जिंदगी  ||